मस्जिदों का शहर भोपाल

अगर आप साल भर तक, हर रोज़ एक नई मस्जिद में नमाज़ अदा करना चाहें तो भोपाल आ जाइए । भोपाल ऐसा शहर है जहाँ एशिया की सबसे छोटी मस्जिद से लेकर एशिया की छठी सबसे बड़ी मस्जिद भी आपको मिलेगी । 'द रॉयल जर्नी ऑफ भोपाल' के लेखक अख्तर हुसैन के अनुसार भोपाल ने डेढ़ सौ बरस पहले ही 365 मस्जिदों का आंकड़ा हासिल कर लिया था, तब इस्लामी देशों के किसी शहर में भी इतनी मस्जिदें नहीं थी । मस्जिदों की गिनती के लिहाज से भारतीय उपमहाद्वीप में आज भोपाल का दूसरा स्थान है बांग्लादेश की राजधानी ढाका के बाद ।यहाँ दरख्तों के नाम पर, बागों के नाम पर, औरतों के नाम पर मस्जिदें हैं; मस्जिदों में मस्जिद है ...ये मस्जिदों का शहर है ।ग्यारहवीं सदी की शुरुआत में मालवा के परमार वंश के शासक राजा भोज ने भोजपाल नाम की एक बस्ती को आबाद किया था । यही बस्ती बाद में भोपाल के नाम से प्रसिध्द हुई । राजा भोज के शासनकाल के लगभग सात सौ साल बाद सत्रहवीं शताब्दी की शुरुआत में एक साहसी अफगान भोपाल आया जिसका नाम था दोस्त मोहम्मद ख़ान । वह अफगानिस्तान के तिरह के मीर अज़ीज़ का वंशज था और मूल रुप से औरंगज़ेब की सेना में भर्ती होने की नीयत से आया था । कुछ दिनों उसने दिल्ली में औरंगज़ेब की सेना में काम भी किया किन्तु वहाँ एक युवक की हत्या करने के बाद वह फ़रार हो गया । वह भागकर मालवा आया और उसने चन्देरी पर सैय्यद बंधुओं को आक्रमण में हिस्सा लिया । बाद में इस लड़ाके ने पैसे लेकर लोगों के लिए लड़ना शुरु कर दिया । इसी सिलसिले में दोस्त मोहम्मद को भोपाल की गोंड रानी द्वारा बुलवाया गया और रानी ने मदद की एवज़ में उसे बैरसिया परगने का मावज़ा गाँव दे दिया । रानी की मृत्यु के बाद 1722 में दोस्त मोहम्मद ख़ान ने भोपाल पर कब्ज़ा कर लिया ।उसने राजा भोज के टूटे हुए क़िले के पास भोपाल की चहारदीवारी बनवाई और इसमें सात दरवाज़े बनवाए जो हफ्तों के दिनों के नाम से थे । सन 1726 में दोस्त मोहम्मद ख़ान ने अपनी बीवी फतेह के नाम पर एक क़िला बनवाया - फतेहगढ़ का क़िला । इसके मग़रबी बुर्ज पर एक मस्जिद बनवाई गई । इस छोटी सी मस्जिद में दोस्त और उसके सुरक्षा कर्मी नमाज़ अदा किया करते थे । यह एशिया की सबसे छोटी मस्जिद के रुप में जानी जाती है और इसका नाम है 'ढाई सीढ़ी की मस्जिद' ।
इसका नाम 'ढाई सीढ़ी की मस्जिद' क्यूँ पड़ा यह कहना बहुत मुश्किल है क्योंकि ढाई सीढ़ी आज कहीं भी नज़र नहीं आती लेकिन शायद जब यह बनी होगी तब ढाई सीढ़ी जैसी कोई संरचना इससे अवश्य जुड़ी रही होगी । इसे भोपाल की पहली मस्जिद कहते हैं । हालाँकि कुछ लोग आलमगीर मस्जिद को भोपाल की पहली मस्जिद कहते हैं । उनका मानना है कि औरंगज़ेब का जहाँ-जहाँ से गुज़र हुआ उनके लिए जगह जगह आलमगीर मस्जिदें तामीर की गई और इस लिहाज से इसका नाम पहले आना चाहिए ।मौखिक इतिहास पर विश्वास न कर यदि तथ्यों का विष्लेषण किया जाय तो 'ढाई सीढ़ी की मस्जिद' को ही भोपाल की पहली मस्जिद कहा जाएगा । यहीं से शुरु होता है भोपाल में मस्जिदें तामीर करवाने का सिलसिला । दोस्त मोहम्मद ख़ान के बाद एक लम्बे वक्फ़े तक कोई ख़ास निर्माण कार्य नहीं हुआ । बाद में उसके पोते फैज़ मोहम्मद ख़ान ने भोपाल की झील के किनारे कमला महल के पास एक मस्जिद बनवाई जो आज रोज़ा है और इसे मकबरे वाली मस्जिद के नाम से जाना जाता है । ऐसा स्थान जहाँ मस्जिद और मज़ार साथ में होते हैं उसे रोज़ा कहा जाता है । दोस्त मोहम्मद ख़ान की बहू माजी ममोला, जो विवाह के पूर्व हिन्दू थी, ने तीन मस्जिदें बनवाई । इनमें से एक थी तालाब के किनारे स्थित माजी साहिबा कोहना जिसे भोपाल की पहली जामा मस्जिद भी कहा जाता है । दूसरी मस्जिद थी गौहर महल के पासवाली माजी कलाँ और तीसरी इस्लाम नगर जाने वाले रास्ते नबीबाग में ।माजी ममोला के बाद तीन नवाब हुए और तीसरे नवाब की बेटी थी कुदसिया बेगम इनका अस्ल नाम था गौहर आरा । कुदसिया बेगम बहुत धार्मिक थी और उन्होने पहली बार मक्का मदीना में हाजियों के ठहरने के लिए इंतज़ाम की पहल की । पुराने भोपाल शहर के बीचों बीच स्थित जामा मस्जिद का निर्माण कुदसिया बेगम ने ही करवाया था ।
1832 में इसका संग -ए - बुनियाद रखा गया और इसे मुक्कमल होने में 25 साल लग गए । इस मस्जिद के निर्माण में तब 5, 60, 521 रुपए खर्च हुए थे । यह मस्जिद बहुत ऊँचे आधार पर बनी है और इस आधार पर कई दुकानों का भी प्रावधान किया गया था ।ये दुकानें आज भी लगती है और मस्जिद के इर्दगिर्द एक रंगबिरंगी दुनिया का अहसास कराती हैं । जामा मस्जिद के आधार पर फूल पत्तियों की घुमावदार आकृतियों हिन्दू स्थापत्य शैली का प्रभाव स्पष्ट करती हैं । यह मस्जिद एक तरह से भोपाल में स्थापत्य की शुरुआत है । जामा मस्जिद के दक्षिण पश्चिम की तरफ बमुश्किल एक मील दूर एक और मस्जिद आपको मिलेगी जिसका नाम है मोती मस्जिद ।
इसकी संगे बुनियाद भी कुदसिया बेगम ने ही रखी थी । बाद में इसे कुदसिया बेगम की बेटी सिकन्दर जहाँ ने मुकम्मल करवाया । सिकन्दर जहाँ का अस्ल नाम मोती बीवी था और इन्ही के नाम पर मस्जिद का नाम पड़ा । इसमें सफेद संगमरमर और लाल पत्थर का इस्तेमाल किया गया है और यह स्थापत्य का बेहद खूबसूरत नमूना है ।अब रुख़ करते हैं भोपाल की सबसे बड़ी मस्जिद यानि ताजुल मसाजिद का ताजुल मसाजिद का अर्थ है 'मस्जिदों का ताज'।
सिकन्दर बेगम ने इस मस्जिद को तामीर करवाने का ख्वाब देखा था । दरअस्ल 1861 के इलाहबाद दरबार के बाद जब वह दिल्ली गई तो उन्होने पाया कि दिल्ली की जामा मस्जिद को ब्रिटिश सेना की घुड़साल में तब्दील कर दिया गया है । उन्होने अपनी वफादारियों के बदले अंग्रेज़ों से इस मस्जिद को हासिल किया और ख़ुद हाथ बँटाते हुए इसकी सफाई करवाकर शाही इमाम की स्थापना की । इस मस्जिद से प्रेरित होकर उन्होने भोपाल में भी ऐसी ही मस्जिद बनवाना तय किया । सिकन्दर जहाँ का ये ख़ाब उनके जीते जी पूरा न हो पाया तो उनकी बेटी शाहजहाँ बेगम ने इसे अपना ख्वाब बना लिया । उन्होने इसका बहुत ही वैज्ञानिक नक्षा तैयार करवाया । ध्वनि तरंग के सिद्धांतों को दृष्टिगत रखते हुए 21 खाली गुब्बदों की एक ऐसी संरचना का मॉडल तैयार किया गया कि मुख्य गुंबद के नीचे खडे होकर जब ईमाम कुछ कहेगा तो उसकी आवाज़ पूरी मस्जिद में गूँजेगी । शाहजहाँ बेगम ने इस मस्जिद के लिए विदेश से 15 लाख रुपए का पत्थर भी मंगवाया किन्तु चूँकि इसमें अक्स दिखता था अत: मौलवियों ने इस पत्थर के इस्तेमाल पर रोक लगा दी । आज भी ऐसे कुछ पत्थर दारुल उलूम में रखे हुए हैं । शाहजहाँ बेगम का ख्वाब भी अधूरा ही रह गया क्योंकि गाल के कैंसर के चलते उनका असामयिक मृत्यु हो गई । इसके बाद सुल्तानजहाँ और उनके बेटा भी इस मस्जिद का काम पूरा नहीं करवा सके । आज जो ताजुल मसाजिद हमें दिखाई देती है उसे बनवाने का श्रेय मौलाना मुहम्मद इमरान को जाता है जिन्होने 1970 में इस मुकम्मल करवाया ।यह दिल्ली की जामा मस्जिद की हूबहू नक़ल है । आज एशिया की छठी सबसे बड़ी मस्जिद है लेकिन यदि क्षेत्रफल के लिहाज से देखें और इसके मूल नक्षे के हिसाब से वुजू के लिए बने 800 X 800 फीट के मोतिया तालाब को भी इसमें शामिल कर लें तो बकौल अख्तर हुसैन के यह दुनिया की सबसे बड़ी मस्जिद होगी ।
भोपाल की कुछ और क़दीमी मस्जिदें हैं जो देखने लायक हैं जैसे अहमदाबाद पैलेस स्थित सोफिया मस्जिद । यह संभवत: भारत की पहली एक मीनारा मस्जिद है ।
इक़बाल मैदान के पास छोटी सी झक सफेद हीरा मस्जिद भले ही अपनी ओर आपका ध्यान आकर्षित न कर पाए किंतु शाहजहाँ बेगम द्वारा बनवाई गई यह ऐसी मस्जिद है जो भोपाल के बाहर टुकड़ों में तैयार की गई थी और यहाँ लाकर इसे जोड़ भर दिया गया था ।भोपाल में मस्जिदों के बनने का सिलसिला जारी है लकिन इसकी क़दीमी मस्जिदों की बात अलहदा है । इनकी ऊँची ऊँची मीनारों ने कई दौर देखे हैं । इन्होने कभी इंसानियत को ख़ुद से ऊँचा उठता देखा है तो कभी उसे हैवानियत में तब्दील होते हुए । लेकिन ये गुंबद, ये मीनारें ये मस्जिदें सदियों से एक पैग़ाम दे रही हैं ओर वह पैग़ाम है इंसानियत का ।

4 comments:

Unknown said...

A Research oriented artical,finely crafted alongwith beautiful photographs.
Congrats to the author.
Quadar Nawaz

Unknown said...

excellent work.praveen sheolikar

him said...

bahut badhiya hai sir jitna khoob soorat hai utna hi in
formative bhi.....aap ki photography ka mureed pehle se hi tha.....soch raha hoon aisa hi kuch lucknow ki masjidon aur mandiro par .........

word varification hata lein sir ..

http://dr-mahesh-parimal.blogspot.com/ said...

राकेश भाई
बहुत ही प्यारे हैं आप उतना ही प्यारी है आपकी शख्सियत। आपने आदेश दिया है या विनती की है समझ में नहीं आता। सचमुच बहुत मेहनत की है आपने भोपाल को समझने में। भाषा में पकड़ होने के कारण समझ में भी आ जाती हैं आपकी भावनाएँ। शोध है पूरा। कोई भी सिनाप्सिस लिख सकता है। रास्ता आसान कर दिया आपने।
महेश परिमल